एक समय रहस्यमय विशालता
भयभीत करती थी मनुष्य को।
कठोर दुनिया थी।
जीवित रहने के लिए
मनुष्य ने विकसित की अपनी सोच।
स्वयं को जाना,
पूरी तरह से जन्मा।
पराधीन से स्वाधीन बना।
इतना स्वाधीन,
कि जीवन के ‘कोड’ को फिर से लिखना चाहता है।
कुछ इसे मनुष्य की उद्दंडता कह रहे हैं।
कह रहे हैं, मनुष्य अपने में पूर्ण है।
उसमे ही छुपी हुई है उसकी पूर्णता।
क्या ज़रुरत उसे ‘कोड’ बदलने की?