पिछले पांच दशक से
मैं एक कथा वाचक की भूमिका निभा रहा हूं।
मेरी उम्र हो गई है।
मेरी उम्र के रखवाले लेकिन
मेरी उम्र बढ़ने नहीं देते हैं।
बांधे रखते हैं मुझे
अपनी उम्र के साथ ।
उनका अध्यापक जो था।
आज वो मेरे मार्गदर्शक हैं ।
युग युग से चलते आ रहे
धर्म और अधर्म के युद्ध का भागीदार हूं मैं ।
विजय के हाथ में किसी ने लिख दिया था, “मेरा बाप चोर है ।”
इस लांछन ने उसे जीने न दिया ।
ममता का मूल्यांकन पैसों से करने लगा ।
विजयी होकर भी विजय हार गया ।
दुर्योधन के माथे पर किसी ने लिख दिया था, उसका पिता अँधा है ।
न मिटा पाया था दुर्योधन भी,
पिता के अंधेपन का लांछन।
सच और झूठ के युद्ध में
कभी युधिष्ठर जीतते है,
तो कभी दुर्योधन ।
कहा जाता है, युद्ध में सब कुछ चलता है ।
अपशब्द बोलने पड़ते हैं ।
धर्मयुद्ध आपसी युद्ध बन जाते है ।
फिर एक दिन जमीर खींच लाती है,
फिर धर्म की ओर ।
और इस प्रकार, धर्म और अधर्म का युद्ध
युग युग से चलता चला आ रहा है।
अँधा युग, धर्मवीर भारती की प्रस्तुति,
महाभारत के अंतिम दिनों की कथा लिखता है।
यह विनाश की बात करता है,
न केवल मानव जीवन की,
बल्कि मानवीय मूल्यों की भी ।
महाभारत में, विजेता और पराजित दोनों अंततः हार जाते हैं।
जब अँधा युग आता है, छा जाते हैं
निराशा और आतंक के बादल।
समानांतर हो जाती है,
अंधी नफरत और अँधा प्रेम।
पराजय होती है,
विजेता और पराजित की।
क्षति होती है,
सारी धरती की।
हर युग में अँधा युग आता है।
हर युग में राम और कृष्ण भी आते हैं ।